Location: Garhwa
गढ़वा शहर के ऐतिहासिक मां गढ़देवी मंदिर से निकलने वाली प्रतिमा विसर्जन यात्रा हर साल श्रद्धा और भक्ति का अद्वितीय संगम प्रस्तुत करती है। इस वर्ष भी, विजयदशमी के दिन भक्तों की कंधों और भुजाओं पर सवार होकर मां गढ़देवी की प्रतिमा को भावुक विदाई दी गई।
यात्रा की शुरुआत जैसे ही मंदिर से हुई, पूरे शहर में एक अलग ही ऊर्जा और भावनात्मक माहौल बन गया। भक्तों की आंखों में आंसू, दिलों में श्रद्धा, और मन में एक अनकहा जुड़ाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। इस ऐतिहासिक मंदिर की परंपरा के अनुसार, मां की प्रतिमा को किसी वाहन पर नहीं, बल्कि श्रद्धालुओं के कंधों पर विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। यह अनोखी परंपरा न केवल भक्तों के समर्पण को दर्शाती है, बल्कि मां गढ़देवी के प्रति उनकी अटूट आस्था का प्रतीक भी है।
मां की प्रतिमा जैसे ही मंदिर से बाहर आती है, शहर और आसपास के इलाकों से हजारों लोग उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़ते हैं। हर भक्त की यही इच्छा होती है कि वे एक बार मां के चरणों का स्पर्श कर सकें या उनकी झलक पा सकें। जैसे भगवान जगन्नाथ के रथ को खींचने की श्रद्धा होती है, वैसे ही मां गढ़देवी की विसर्जन यात्रा में हर किसी की चाहत होती है कि वे इस पवित्र क्षण का हिस्सा बनें।
विसर्जन यात्रा का दृश्य ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई अलौकिक शक्ति अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हुए अंतिम विदाई ले रही हो। मां गढ़देवी की प्रतिमा के साथ हजारों श्रद्धालु यात्रा में शामिल होते हैं, लेकिन माहौल ऐसा शांत और श्रद्धा से भरा होता है कि हर व्यक्ति इस क्षण को अपनी आत्मा से महसूस करता है।
जब मां गढ़देवी सोनपुरवा तालाब की ओर बढ़ती हैं, ऐसा लगता है मानो समय रुक गया हो। हजारों की भीड़ में भी एक दिव्यता और शांति फैली होती है, जहां हर व्यक्ति उस पल में खो जाता है। यह यात्रा सिर्फ एक धार्मिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि हर उस श्रद्धालु के लिए एक आध्यात्मिक अनुभव है जिसने इसे करीब से महसूस किया है।
मां की विदाई के इस क्षण में, हर आंख नम, हर हृदय भावुक, और हर आत्मा संतुष्ट दिखती है। गढ़वा की यह परंपरा सिर्फ आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि एक ऐसा अनुभव है जिसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है—यह तो केवल वही समझ सकता है जिसने इसे अपनी आंखों से देखा हो और अपने दिल से महसूस किया हो।