Location: रांची
: रांची: झारखंड की राजनीति में पहले हलचल मची और अब फिर दो दिनों से खामोशी है। इसके पीछे हैं पूर्व मुख्यमंत्री और हेमंत सोरेन सरकार में कैबिनेट मंत्री चंपई सोरेन। चंपई सोरेन दोराहे पर खड़े हैं। इधर जाएं या उधर? आगे कुआं तो पीछे खाई वाली स्थिति है। इसकी वजह है, बिना सूझबूझ की राजनीति और सलाहकार।
चंपई सोरेन के बारे में कहा जाता है कि वह सीधे सरल स्वभाव के हैं। गांव देहात के रहने वाले हैं। राजनीति के चतुर खिलाड़ी नहीं हैं। और यह साबित भी हो गया। यदि वह चतुर राजनीतिज्ञ और रणनीतिकार होते तो आज उनकी यह हालत नहीं होती। इसके लिए मीडिया सलाहकार के साथ-साथ उनके बेटे को भी जिम्मेदार माना जा रहा है। झारखंड मुक्ति मोर्चा से बगावत करने के पहले उन्होंने सभी पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया। फैसला जल्दबाजी में लिया गया। भविष्य और वर्तमान की राजनीति स्थिति पर गंभीरता से विचार नहीं किया। जिन विधायकों पर उन्होंने भरोसा किया कि वह बगावत में उनका साथ देंगे उन्होंने ऐसा नहीं किया। साथ देने की बात कह कर पीछे हट गए। चंपई सोरेन से ज्यादा चतुर तो उनके समर्थक विधायक निकले जिन्होंने पहले उन्हें बगावत के लिए आगे किया और फिर पीछे हट गए। अब चंपई सोरेन की किरकिरी हो रही है। वह धर्म संकट के साथ राजनीतिक संकट में फंस गए हैं। आगे का रास्ता भी सुरक्षित नहीं है और अब पीछे भी मान सम्मान मिलने वाला नहीं है। दोनों तरफ से स्थिति अनुकूल नहीं दिख रही है। ऐसे में वह क्या फैसला लेते हैं यह देखना महत्वपूर्ण होगा।
इधर, इस मामले में भाजपा भी बहुत सावधानी से आगे बढ़ाना चाह रही है। लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा की ओर से अति आत्मविश्वास में जो कदम उठाए गए थे वह घातक साबित हुए। जोड़-तोड़ की राजनीति और टिकट बंटवारे में मनमानी के कारण भाजपा की यह हालत हुई है। लोकसभा चुनाव परिणाम से भाजपा ने सबक लिया है, इसलिए अब पार्टी पुरानी गलतियों को दोहराना नहीं चाहती है। झारखंड के मामले में भी पार्टी ऐसा ही ऐसा ही कर रही है। चुनाव सर पर है इसलिए सभी फैसले नफा नुकसान के तराजू पर तोल कर लिए जाएंगे।
लोकसभा चुनाव से पहले तत्कालीन सांसद गीता कोड़ा और शिबू सोरेन परिवार की बड़ी बहू सीता सोरेन को भाजपा में शामिल कराकर टिकट दिया गया। लेकिन दोनों चुनाव हार गईं। इसलिए भाजपा विधानसभा चुनाव में लोकसभा चुनाव वाली गलती करना नहीं चाहती। पार्टी अब बाहरी लोगों के बदले अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं पर भरोसा करेगी। बाहर से आए लोगों को तभी टिकट दिया जाएगा जब उनके जीतने की पक्की संभावना होगी।
चंपई सोरेन के मामले में भी पार्टी बहुत सधी चाल से आगे बढ़ रही है। चंपई सोरेन के साथ यदि चार-पांच विधायक होते तो भाजपा उन्हें तुरंत लपक लेती। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। चंपई सोरेन अकेले पड़ गए। इसलिए भाजपा ने भी फिलहाल हाथ खींच लिया है। वह वेट एंड वॉच की स्थिति में है। प्रदेश भाजपा के भी नेता नहीं चाहते हैं कि अब दूसरी पार्टियों में तोड़फोड़ कर लोगों को लिया जाए और टिकट दे दिया जाए। ऐसा करने से पुराने कार्यकर्ताओं में नाराजगी बढ़ेगी। चुनाव में कार्यकर्ता भीतरघात करेंगे। परिणाम उल्टा होगा।
इधर, चुनाव से ठीक पहले झारखंड मुक्ति मोर्चा के आदिवासी विधायक दल बदल करने के मूड में नहीं हैं। क्योंकि उन्हें लगता है ऐसा करने से उनको नुकसान होगा। भाजपा टिकट देगी भी तो हार का खतरा रहेगा। लोकसभा चुनाव में आदिवासी बहुल सीटों पर जिस तरह झामुमो कांग्रेस गठबंधन को जीत मिली है उसे देखकर अब कोई आदिवासी विधायक झारखंड मुक्ति मोर्चा या कांग्रेस छोड़ने को तैयार नहीं है। क्योंकि उनकी राजनीति खतरे में पड़ जाएगी।