Location: रांची
रांची: विधानसभा चुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त मिली है। हार से पार्टी में हाहाकार है। साऱी रणऩीति फेल कर गई। भाजपा ने तीन बड़े दिग्गजों व राजनीतिक रूप से अनुभवी माने जाने वाले केद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान, असम के मुख्यमंत्री हिमंता विस्व सरमा व राज्यसभा सांसद लक्ष्मीकांत वाजपेयी को प्रभारी बनाया था। तीनों राजनीति के महारथी माने जाते हैं। तीनों की जोड़ी ने खूब मेहनत की। सारे हथकंडे अपनाए, कई नए प्रयोग किए। जोड़तोड़ की। दल बदल कराया। कई प्रमुख लोगों को पार्टी से जोड़ा।
लेकिन सभी प्रयास विफल रहे। इंडिया गठबंधन की आंधी में एनडीए उड़ गयागया। हार के बाद प्रदेश भाजपा में अब बड़े आपरेशन की जरूरत है। पार्टी को अब रणनीति बदलनी होगी। युवा चेहरों को आगे लाना होगा। क्योंकि सभी बड़े व स्थापित नेता फेल हो चुके हैं। जनता का विश्वास खो चुके हैं। पार्टी को अब आदिवासी नेतृत्व के बदले ओबीसी, जेनरल व एससी जातियों पर भरोसा करना होगा। इनको आगे लाना होगा। पूरी टीम बदलनी होगी। आदिवासी नेतृत्व का प्रयोग लगातार फेल हो रहा है।
लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव में भी आदिवासियों ने भाजपा का साथ नहीं दिया। साथ लाने को लेकर जितने प्रयास किए गए सभी विफल रहे। देश में विभन्न राज्यों के आदिवासी भले भाजपा के साथ हैं, लेकिन झारखंड के आदिवासियों ने भाजपा का साथ छोड़ दिया है। झामुमो अध्यक्ष शिबू सोरन के बाद अब हेमंत सोरेन को अपना नेता मान लिया है। हेमंत अब शिबू सोरेन से भी आगे बढ़ गए हैं। झामुमो का विस्तार संथाल परगना व कोल्हान से आगे बढ़ गया। पूरे राज्य में हरे झंडे की धमक दिख रही है। कोयलांचल, लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा से लेकर पलामू-गढ़वा तक प्रभाव दिख रहा। भाजपा को झामुमो से हर इलाके में कड़ी चुनौती मिल रही है। भाजपा के प्रभाव वाले क्षेत्रों में झामुमो का मजबूती के साथ विस्तार हो चुका है। आदिवासी, ईसाई के बाद अब अन्य वर्गो में भी झामुमो की पैठ बढ़ी है। भाजपा के लिए यह चिंता की बात है। इसलिए भाजपा को अब अपनी रणनीति बदलने होगी। अपने समर्थकों को एकजुट रखना होगा। उनका भरोसा जितना होगा।
आदिवासियों ने जब साथ छोड़ दिया है तो अब भाजपा को कोर वोट बैंक ओबीसी, जेनरल व एससी वर्ग से आने वाले नेताओं को आगे करना होगा। इन वर्गों की चिंता करनी होगी। इनको नेतृत्व व जिम्मेदारी देनी होगी। तभी जाकर बात बनेगी। राजनीति में किसी जाति-समाज को तो अलग नहीं किया जा सकता है। लेकिन अब जब आदिवासी नेतृत्व का प्रयोग फेल हो चुका है तो वजूद बचाने के लिए रणनीति तो बदलनी पड़ेगी। नहीं तो स्थिति विकट हो जाएगी। अभी तो संख्या 21 पर पहुंची है, यदि कोर वोटर छटका तो संख्या और नीचे आ जाएगी। सुपड़ा साफ हो जाएगा।
हार के बाद रघुवर दास की होने लगी चर्चा
हार के बाद पूर्व मुख्यमंत्री व ओडिशा के राज्यपाल रघुवर दास की चर्चा शुरू हो गई है। 2019 के विधानसभा चुनाव में कुछ कारणों से रघुवर दास भले ही चुनाव हार गए। लेकिन उनके नेतृत्व क्षमता व काम की चर्चा आज भी होती है। खराब स्थिति में भी भाजपा को 25 सीट मिली थी। इस बार तमाम प्रयास व एनडीए गठजोड़ के बाद भी 21 सीट ही मिली। रघुवर दास बड़े ओबीसी चेहरा हैं। राज्य में उनकी अच्छी पकड़ है। ओबीसी के साथ दूसरी जातियों में भी इनकी स्वीकार्यकता है। रणनीतिकार भी हैं। मजबूत छवि के हैं। फैसला लेने में सक्षम हैं। इसलिए फिर से उनकी चर्चा शुरू हो गई है। उनको चाहने वाले रघुवर दास की वापसी चाहते हैं। उनकी कमी अब खल रही है।
भाजपा के कई युवा विधायक जो विधानसभा में मजबूती से अपनी आवाज उठाते थे, वह इस बार हार गए हैं। इनमें प्रमुख हैं भानु प्रताप शाही, विरंची नारायण, अनंत ओझा, रणधीर सिंह आदि। विधानसभा में इन विधायकों की कमी भाजपा को खलेगी। कौन विधायक इनका स्थान लेता है यह देखना होगा। हार के बाद पार्टी के सामने बड़ी कठिन चुनौती है। इस चुनौती से पार्टी कैसे निपटती है यह देखना होगा। झारखंड में भाजपा कठिन दौर से गुजर रही है। इंतजार के बदले फैसला लेने का समय है। फैसला लेने में अगर देर हुई तो और अधिक नुकसान उठाना पड़ेगा।