Location: रांची
रांची: विधानसभा चुनाव परिणाम पर मंथन जारी है. भाजपा को मिली करारी शिकस्त के पीछे कई वजह सामने आ रही है. झारखंड के आदिवासियों ने 2019 के विधानसभा चुनाव में ही भाजपा का साथ छोड़ दिया था. आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 सीटों में से सिर्फ दो सीट मिली थी. आदिवासियों का साथ नहीं मिला तो भाजपा सत्ता से बाहर हो गई. राज्य के विकास व नक्सलवाद के खिलाफ बेहतर परिणाम देने के बाद भी रघुवर दास सरकार की वापसी नहीं हुई. नाराज आदिवासियों को साथ जोड़ने के लिए भाजपा ने कई प्रयास किए पर सारे फेल रहे. 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा राज्य की सभी पांच एसटी सीटों पर फिर हार गई. विधानसभा चुनाव के पहले उनको मनाने की फिर से कोशिश हुई. क्या-क्या हुआ सबको पता है. बार-बार इसकी चर्चा करना ठीक नहीं है. आदिवासियों के बाद अब कुर्मी जाति ने भी साथ छोड़ दिया.
हाल में संपन्न विधानसभा चुनाव में एसटी के लिए आरक्षित 28 में से केवल एक सीट मिली. पूर्व सीएम चंपाई सोरेन अपनी वजह से जीते.
महत्वपूर्ण यह है कि आदिवासियों के बाद अब कुर्मी( कुड़मी) जाति का भाजपा व आजसू से अलग हो जाना है. कुर्मी वोटरों ने भी जब एनडीए का साथ छोड़ दिया तो परिणाम बुरी तरह प्रभावित हुआ. एनडीए दो दर्जन सीट पर सिमट गया. सबसे दुर्गति आजसू की हुई. कुड़मी जाति पर आजसू की पकड़ मानी जाती थी. सुदेश महतो, सांसद चंद्रप्रकाश चौधरी जैसे कई कुर्मी नेता पार्टी के आधार स्तंभ हैं. भाजपा ने गठबंधन के तहत आजसू को उनके मन के अनुसार सीटें दी. 10 में से 7 सीटों पर कुड़मी वोटर निर्णायक हैं. इनमें से आजसू सिर्फ एक सीट मांडू जीत सकी, वह भी मात्र 231 वोटों से. सुदेश महतो अपनी सीट नहीं बचा सके. आजसू के हाशिये पर जाने के पीछे जयराम महतो की नई पार्टी झारखंड लोकतांत्रिक मोर्चा है. आजसू के बदले कुर्मी मतदाताओं ने जेकेएलएम को तरजीह दी. आजसू-भाजपा का साथ छोड़ दिया. खासकर युवा वर्ग. इसकी वजह से आजसू को भारी नुकसान हुआ. कैंची के बाद जो कुछ बचा हुआ तीर धनुष में चला गया.
जेकेएलएम के प्रदर्शन ने एनडीए के सपनों पर पानी फेर दिया. मोर्चा की वजह से एनडीए के हाथ से 19-20 सीटें निकल गईं. मोर्चा को सिर्फ डुमरी में सफलता मिली, लेकिन उसने एनडीए का खेल बिगाड़ दिया. जयराम महतो की कैंची के कमाल की वजह से इंडिया की शानदार वापसी हो गई. कैंची से इंडिया को कम नुकसान हुआ. कैंची का कमाल तो कई सीटों पर दिखा, लेकिन दो सीटों रामगढ़ व मांडू में मिले वोटों की गणित से इसे समझ सकते हैं. रामगढ़ में जेकेएलएम को 70 हजार तो मांडू में 72 हजार वोट मिले. कांके जैसी सुरक्षित सीट भी भाजपा कांग्रेस से 968 वोट से हार गई. इस हार की वजह भी मोर्चा ही है. कांके के कुड़मी बहुल गांवों में कैंची को करीब 25 हजार वोट मिला. कांके की हार में कई संकेत छिपे हुए हैं. इसको समझने की जरूरत है.
कुर्मी मतदाताओं ने क्यों छोड़ा भाजपा का साथ
झारखंड के कुड़मी अपने को आदिवासी मानते हैं. यह समाज अपने लिए आदिवासी (एसटी) दर्जा मांग रहा है. इस मांग को लेकर कई बार उग्र आंदोलन हो चुका है. केंद्र में भाजपा की सरकार है. इसिलए कुड़मी समाज को लग रहा है कि भाजपा हमे एसटी का दर्जा नहीं दे रही है. भाजपा से नाराजगी की मुख्य वजह यही है. कुड़मी जब एसटी का दर्जा मांगते हैं तो आदिवासी इसका विरोध करते है. इनको लगता है कि हमारे अधिकार में बंटवारा हो जाएगा. कुड़मी जाति को एसटी का दर्जा देना इतना आसान नहीं है. चाहे किसकी की भी सरकार हो. यदि कुड़मी को एसटी का दर्जा मिला तो आदिवासी समाज नाराज हो जाएगा. इसलिए यह मामला काफी संवेदनशील है. सरकार के लिए आगे कुआं, पीछे खाई वाली स्थिति है. आदिवासी समाज का प्रभाव देश के कई राज्यों में हैं. जबिक कुड़मी समाज झारखंड-बंगाल, ओडिशा व कुछ अन्य क्षेत्रों तक सीमित है. ऐसे में कोई सरकार इस मुद्दे पर कैसे फैसला लेगी. जेकेएलएम ने इस मुद्दे को समाज के बीच हवा दी. उनके आक्रोश को भड़का का भुना लिया. इसका सीधा नुकसान आजसू व भाजपा को हुआ.
जयराम महतो की पार्टी को भाजपा-आजसू ने किया नजरअंदाज
चुनाव में भाजपा व आजसू ने गठबंधन कर लिया. गठबंधन करते समय भाजपा के रणनीतिकारों ने जयराम महतो की पार्टी को नजरअंदाज किया. गंभीरता से नहीं लिया. यहीं बड़ी चूक हो गई. ऐसा नहीं है कि मोर्चा की एंट्री अचानक विधानसभा चुनाव में हुई, इसलिए उसकी ताकत कोई समझ नहीं सका. लोकसभा चुनाव भी यह पार्टी लड़ी थी. पार्टी के उम्मीदवारों ने कुर्मी बहुल क्षेत्रों में शानदार प्रदर्शन किया था. इसके बावजूद भी यदि इसके असर को भाजपा व आजसू के नेताओं ने नहीं समझा तो फिर इसे अहंकार ही कहा जाएगा. जयराम महतो को किसी ने महत्व नहीं दिया. अब जब परिणाम आया तो माथा पीट रहे हैं. हाय-तौबा मचा हुआ है.
अब तो यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा ने आजसू के बदले या साथ-साथ जयराम महतो की पार्टी के साथ गठबंधन किया हो तो स्थिति आज दूसरी होती. भाजपा के चुनाव प्रभारी तो बाहर से आए थे, लेकिन झारखंड के नेता क्या कर रहे थे. जमीनी हकीकत से भाजपा नेतृत्व को अवगत क्यों नहीं कराया. इस मामले में अधिक दोष तो स्थानीय नेताओं की है. उन्होंने नेतृत्व को अंधेरे में रखा. आजसू से भी चूक हुई है. पार्टी अपनी दुगर्ति के लिए खुद जिम्मेदार है. आजसू को अब फिर से खड़ा होने में समय लगेगा. भाजपा के लिए झारखंड में आगे की राह भी कठिन दिख रही है. भाजपा ने अपनी पार्टी के कुर्मी नेताओं का भी इस चुनाव में ठीक से इस्तेमाल नहीं किया. इसका भी खामियाजा भुगतना पड़ा.