Location: रांची
रांची : झारखंड कभी भाजपा का मजबूत गढ़ था. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से भाजपा लगातार कमजोर हो रही है और इंडी गठबंधन मजबूत होता जा रहा है. 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद 2024 के चुनाव में भी भाजपा हार गई. पिछली बार से इस बार हार और बड़ी हो गई. 25 सीट से 21 पर आ गई. यह भाजपा के लिए खतरे की घंटी है. पार्टी आगे बढ़ने के बजाय पीछे जा रही है. झारखंड में भविष्य की राह भी कठिन है. अब यदि भाजपा ने अपनी रणनीति नहीं बदली, जमीनी स्तर पर काम शुरू किया, नए चेहरों को आगे नहीं किया और पुराने व चूके हुए नेताओं से किनारा नहीं किया तो फिर झारखंड में वापसी संभव नहीं है.
झारखंड में भाजपा कमजोर हो रही और इंडी गठबंधन मजबूत हो रहा है. खासकर झामुमो. झामुमो का तेजी से नए इलाकों में विस्तार हो रहा है. कुछ साल पहले तक संथाल परगना व कोल्हान तक सिमटा झामुमो का विस्तार अब राज्य के अंतिम छोर गढ़वा-पलामू तक हो चुका है. पहली बार 2019 में झामुमो प्रत्याशी मिथिलेश ठाकुर गढ़वा से जीते थे. उन्होंने अपने कार्यकाल में विकास की लंबी लकीर खींची है। लेकिन इस बार गढ़वा में वह ध्रुवीकरण की राजनीति की वजह से हार गए। पर भवनाथपुर से अनंत प्रताप देव जीत गए. देव ने भाजपा के फायरब्रांड नेता भानू प्रताप शाही को हराया.
गत तीन-चार सालों में गढ़वा-पलामू में झामुमो का तेजी से विस्तार हुआ है. इस विस्तार के पीछे मिथिलेश ठाकुर की बड़ी भूमिका रही है. मंत्री रहते उन्होंने अनेक लोगों को झामुमो से जोड़ा है. अनंत प्रताप देव व ताहिर अंसारी को मिथिलेश ठाकुर ने ही झामुमो में शामिल कराया था. पलामू गढ़वा में हजारों लोग मिथिलेश ठाकुर के प्रयास से झामुमो के साथ जुड़े। इसलिए झामुमो पलामू प्रमंडल में मजबूत हुआ है। भवनाथपुर से अनंत प्रताप देव को टिकट दिलाने से लेकर चुनाव लड़वाने में भी मिथिलेश ठाकुर ने अहम भूमिका निभाई.
गढ़वा-पलामू में राजद हाशिये पर चला गया था. लेकिन गठबंधन की राजनीति और भाजपा के अंहकार व टिकट वितरण में गड़बड़ी के कारण राजद की वापसी हो गई. बिश्रामपुर व हुसैनाबाद से राजद के विधायक चुने गए. भाजपा ने यदि दोनों सीटों पर टिकट बदल दिया होता तो परिणाम कुछ और ही होता. पलामू प्रमंडल में भाजपा हमेशा से मजबूत रही है. लेकिन अब यह किला ध्वस्त होता जा रहा है. इसके लिए जिम्मेदार भाजपा ही है.
झामुमो ने दक्षिणी व उत्तरी छोटानागपुर में भी अपनी मजबूत पकड़ बना ली है. भाजपा के प्रभाव वाले सभी क्षेत्रों में झामुमो की धाक दिख रही है. भाजपा का मजबूत गढ़ खूंटी भी इस बार ध्वस्त हो गया. रांची शहर की सीट कांके से भाजपा का खूंटा कबड़ गया. यहां पिछले 34 सालों से भाजपा जीत रही थी. कांग्रेस ने वापसी की है. यह झामुमो की ताकत से हुआ है. झामुमो का विस्तार पूरे राज्य में हो चुका है. झामुमो नीत गठबंधन भाजपा को अब हर सीट पर कड़ी चुनौती दे रहा है.
झारखंड में भाजपा सिमट रही है. जनाधार तेजी से कमजोर हो रहा है. इसके लिए भाजपा का नेतृत्व जिम्मेदार है. पार्टी जमीन से कटती चली जा रही है. संगठन कमजोर हुआ है. संगठन पर जनाधार विहीन नेताओं का कब्जा है. प्रदेश कमेटी में कई चेहरे ऐसे हैं जो 20-25 साल से जमे हुए हैं. ऐसे लोग सर्फ प्रदेश मुख्यालय की राजनीति व बड़े नेताओं की गणेश परिक्रमा करते हैं. पार्टी में नेताओं की भरमार है व कार्यकर्ताओं की कमी. समर्पित कार्यकर्ताओं की पूछ नहीं रह गई है. पार्टी में गुटबाजी हावी है. जनाधार वाले नेताओं की कमी है. बड़े नेता अब केवल नाम के रह गए हैं. इस विधानसभा चुनाव में भी बहुत कुछ देखने-सुनने को मिला है. भाजपा अपनी करनी से हारी है. पार्टी पर बाहरी नेताओं का कब्जा है. जमीनी हकीकत से किसी को मतलब नहीं है. बड़े नेता अपने-अपने विरोधियों को टारगेट कर हराने में लगे हुए थे. संगठन महामंत्री के कामकाज पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं. उनके आसपास जनाधारविहीन वाले नेताओं का जमावड़ा है. कुछ लोगों ने उनके पीए के व्यवाहर की भी शिकायत की है. उनसे मिलने में लोगों को सोचना पड़ता है. राज्यसभा के सांसदों की लोकप्रियता व कामकाज पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं.
भाजपा में अब बड़े बदलाव की जरूरत है. नए व ऊर्जावान चेहरों को आगे लाना होगा, जिम्मेदारी देने होगी. पुराने व थके हुए चेहरों से मुक्ति पानी होगी. आदिवासी अब साथ आने वाले नहीं हैं, ऐसी स्थिति में भाजपा को अब ओबीसी, जनरल व दलितों पर फोकस कर ही आगे बढ़ना होगा. इन जातियों को नेतृत्व देना होगा. आगे लाना होगा. युवा जयराम महतो की स्टाइल की राजनीति पसंद कर रहे हैं. इसलिए जुझारू युवाओं को आगे करना होगा. ताकि जयराम महतो के असर को काटा जा सके.
महिलाओं को भी आगे लाना होगा. भाजपा के लिए कल्पना सोरेन बड़ी चुनौती बन चुकी हैं. कल्पना की काट के लिए महिला नेतृत्व को आगे करना होगा. चुनौतियां कई हैं. डगर कठिन है. पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए पांच साल का समय है.
इधर, इंडी गठबंधन का नेतृत्व कर रहे हेमंत सोरेन के सामने भी चुनौती कम नहीं है. अपनी सरकार की लोकप्रियता बरकरार रखनी होगी. चुनाव के पहले जो वादे किए गए हैं, उसे पूरा करना होगा. यदि ऐसा करने में वह सफल रहे तो राजनीति मजबूती से आगे बढ़ेगी नहीं तो अगर विफल रहे तो इनकी राह कठिन हो जाएगी.