Location: Garhwa
गढ़वा विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों के नामांकन के साथ ही राजनीतिक माहौल गरमा चुका है। चुनावी तस्वीर साफ हो रही है, और मुकाबला पहले से कहीं अधिक रोचक दिख रहा है। 2009 के चुनाव जैसी स्थिति एक बार फिर बनती नजर आ रही है, जहां तीन पुराने प्रतिद्वंदी एक बार फिर आमने-सामने होंगे। भाजपा के सत्येंद्र नाथ तिवारी, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के मिथिलेश कुमार ठाकुर और समाजवादी पार्टी के गिरिनाथ सिंह के बीच त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति बन रही है।
हालांकि, इस बार का चुनाव केवल पुराने चेहरों तक सीमित नहीं है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के अजय कुमार चौधरी और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के डॉक्टर एम एन खान जैसे नए चेहरे भी मैदान में कूद चुके हैं। दोनों उम्मीदवार अपने-अपने आधार वोट बैंक के साथ मजबूती से चुनाव लड़ने के मूड में हैं। इनकी एंट्री से गढ़वा के चुनावी रण में नया मोड़ आ चुका है, और समीकरणों में बड़ा उलटफेर हो सकता है।
गढ़वा का राजनीतिक परिदृश्य पहले से ही जटिल रहा है, लेकिन इस बार के चुनाव में यह और अधिक पेचीदा हो गया है। जहां पुराने धुरंधर अपने अनुभव और राजनीतिक धाक के साथ मैदान में उतर रहे हैं, वहीं नए चेहरों का उद्देश्य मतदाताओं को लुभाकर चुनावी समीकरण को बदलना है।
बसपा और एआईएमआईएम जैसे दलों की मजबूती से चुनाव लड़ने की योजना से यह साफ है कि सभी प्रमुख दलों की रणनीतियों पर गहरा असर पड़ेगा। भाजपा, झामुमो और सपा के समीकरणों में बदलाव देखने को मिल सकता है, क्योंकि नए प्रत्याशी पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश करेंगे।
गढ़वा की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा से महत्वपूर्ण रहे हैं। सत्येंद्र नाथ तिवारी के पक्ष में उनके पुराने समर्थक और संगठन का मजबूत ढांचा है। मिथिलेश कुमार ठाकुर का झामुमो भी स्थानीय मुद्दों और आदिवासी जनाधार पर केंद्रित है। वहीं, गिरिराथ सिंह समाजवादी पार्टी के साथ अपनी सामाजिक न्याय की राजनीति को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं।
लेकिन सवाल यह है कि नए चेहरे कितनी बड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं? अजय कुमार चौधरी और डॉक्टर एम एन खान जैसे उम्मीदवार अपनी-अपनी जातीय और धार्मिक आधार पर वोट खींचने की कोशिश करेंगे, जिससे अन्य प्रत्याशियों के वोट बैंक में कटौती हो सकती है।
यह चुनावी संघर्ष न केवल गढ़वा के मतदाताओं के लिए बल्कि राजनीतिक पंडितों के लिए भी एक पहेली बन गया है। कौन किसका समीकरण बिगाड़ेगा, कौन अंततः बाजी मारेगा, यह परिणाम आने तक अटकलों का खेल बना रहेगा।