Location: रांची
झारखंड की भाषा नीति को लेकर एक बार फिर विवाद की चिंगारी सुलग उठी है, और इस बार इसका केंद्र है—पलामू प्रमंडल। राज्य सरकार द्वारा हाल ही में प्रस्तावित भाषा नियमावली ने जिस तरह क्षेत्रीय भाषाओं की पहचान और उपयोग को परिभाषित किया है, वह न केवल भाषाई संतुलन पर सवाल खड़े करता है, बल्कि युवाओं के भविष्य पर भी एक गंभीर चिंता खड़ी करता है।
पलामू, गढ़वा और लातेहार जैसे जिलों में बोली जाने वाली भाषाएँ—मगही, भोजपुरी और स्थानीय हिंदी—सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा हैं। इन भाषाओं की उपेक्षा से वहां के युवाओं में यह धारणा गहराने लगी है कि सरकार की नीति उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं से बाहर करने का हथियार बन रही है। जब राज्य सरकार शिक्षक बहाली जैसे महत्त्वपूर्ण अवसरों के लिए जिन भाषाओं को पात्रता का आधार बनाती है, उसमें स्थानीय बहुसंख्यक आबादी की भाषाओं को ही शामिल न किया जाए, तो यह केवल नीतिगत चूक नहीं, बल्कि सामाजिक असमानता का संकेत बन जाता है।
सरकार का तर्क चाहे जो भी हो, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस फैसले से हजारों युवाओं की योग्यता को नकारा जा रहा है। भाषा कोई दीवार नहीं, पुल होनी चाहिए—जो राज्य के विभिन्न क्षेत्रों को जोड़ने का काम करे, न कि उन्हें और अधिक दूर कर दे।
चिंता की बात यह भी है कि यह विवाद पहली बार नहीं उठा है। पूर्ववर्ती कार्यकाल में भी भाषा को लेकर सरकार को तीव्र विरोध झेलना पड़ा था और अंततः अपने निर्णय से पीछे हटना पड़ा था। इसके बावजूद एक बार फिर भाषा के नाम पर विभाजनकारी निर्णय यह संकेत देता है कि शायद सरकार जनसंवाद की बजाय सत्ता केंद्रित सोच के साथ आगे बढ़ रही है।
इस परिस्थिति में राजनीतिक दलों को भी आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। सत्ता में शामिल दलों को यह समझना चाहिए कि भाषा का प्रश्न महज भाषाई अस्मिता का नहीं, बल्कि रोजगार, प्रतिनिधित्व और अवसर की समानता का भी है। दूसरी ओर, विपक्षी दलों को इस विषय पर गंभीर चर्चा और समाधान का मार्ग सुझाना चाहिए, न कि केवल विरोध की राजनीति करना।
यदि सरकार वास्तव में झारखंड के युवाओं को आगे बढ़ते देखना चाहती है, तो उसे भाषा को एक साधन की तरह देखना होगा—न कि बाधा के रूप में। पलामू के युवाओं की निराशा किसी एक पार्टी या वर्ग का नहीं, बल्कि पूरे राज्य के भविष्य से जुड़ा प्रश्न है। इसे नजरअंदाज करना, विकास के मार्ग को स्वयं अवरुद्ध करना है।
अब देखना यह है कि क्या राज्य सरकार समय रहते इस आवाज को सुनेगी, या फिर एक और जनविरोध के बाद ही उसे सुध की आवश्यकता महसूस होगा।