चाय की चुस्की
संस्कृत का श्लोक काक चेष्टा —विद्यार्थी।-विद्या के लिए प्रतिबद्ध विद्यार्थी मे पांच लक्षण होने चाहिए – कौवे की तरह जानने की चेष्टा, बगुले की तरह ध्यान, कुत्ते की तरह सोना / निंद्रा, अल्पाहारी अर्थात कम आहार वाला और गृह-त्यागी होना चाहिए। आज की आधुनिक शिक्षा को यदि इस कसौटी पर कसकर देखा जाए तो स्थिति बिल्कुल ही विपरीत दिखलाई पड़ रहा है। विशेषकर सरकारी विद्यालयों में चल रही शिक्षण संस्थान पर गौर करें तो विद्यार्थियों में उक्त पांचो लक्षणों का पूर्णता: अभाव है। सरकारी तंत्र निजी विद्यालयों की तरह स्कूली बच्चों को बेहतर ड्रेस अप मध्यान भोजन के जरिए भरपेट पौष्टिक आहार जैसी व्यवस्था सुदृढ़ करने में इतना अधिक एनर्जी वेस्ट कर रहा रहा है की बच्चों को स्कूल में पढ़ने के प्रति अभिरुचि बिल्कुल ही नहीं दिखाई पड़ रही है।
सरकारी विद्यालयों को प्राइमरी से मिडिल मिडिल से हाई तथा हाई से प्लस टू कर सरकार शिक्षा को द्वारा पहुंचने का खूब दावे कर रही है ।पर अपग्रेड विद्यालयों में शिक्षकों की इतनी टोटे है कि विज्ञान अंग्रेजी जैसे विषयों में कई उच्च विद्यालयों तक में शिक्षकों की भारी कमी है, ऐसे में प्राइमरी एवं मिडिल स्कूल क्या हालत होगी आकलन किया जा सकता है। जो शिक्षक है भी उन्हें सरकार की ओर से गैर शिक्षण कार्य मध्यान भोजन मतदाता सूची पुनरीक्षण, तरह-तरह की बैठक तथा विद्यालय भवनों के निर्माण जैसे कार्यों से जोड़कर उनका मूल्य कार्य शिक्षा देना है , इसे भुला दिया जा रहा है।
शिक्षण संस्थानों के प्रमुखों की हालत तो यह है कि उन्हें बच्चों को कैसे स्कूल में शिक्षा दिया जाए। इसमें ध्यान देने के बजाय विभाग द्वारा तरह-तरह के मांगी जाने वाली रिपोर्ट, विद्यालय प्रबंध समिति की राजनीति में ही उलझाकर रख दिया जा रहा है। परिणाम है कि बच्चे भी वर्तमान व्यवस्था में विद्यालयों में पढ़ने के प्रति रुचि दिखलाने के बजाय मध्यान भोजन की गड़बड़ी छात्रवृत्ति, ड्रेस ,साइकिल प्राप्त करने में विशेष अभिरुचि दिखला रहे हैं। नतीजा है कि समय-समय पर इसे लेकर बच्चे एवं अभिभावक विरोध जताते अक्सर देखे जा रहे हैं। ऐसे में नई शिक्षा व्यवस्था लागू कर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के सरकार के दावे निरर्थक साबित हो रहा है। इसको इससे भी महसूस किया जा सकता है कि छोटे-छोटे भावनों में भी निजी विद्यालय खोलकर बच्चों को पढ़ाने के नाम पर व्यवसाय करने की परिपाटी तेजी से फल फूल रहा है ।
निजी विद्यालयों को कुकरमुत्ते की तरफ उगाने के मूल में सरकारी विद्यालयों में चौपट हो रही शिक्षण कार्य को ही माना जा रहा है। जरा गौर कीजिए सरकारी विद्यालयों में निजी विद्यालयों के अपेक्षा 10 गुना ज्यादा तनख्वाह पाने वाले शिक्षक से पढ़ाने के बजाय निजी विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने के प्रति अभिभावकों की अभिलाषा इतनी तीव्र हो गई है कि अभिभावक अपने कमाई का अधिकांश हिस्सा निजी विद्यालयों में बच्चों को शिक्षा देने में लगा रहे हैं। जबकि ऐसे निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले शिक्षकों का खुद का शिक्षा का स्तर सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों के अनुपात में काफी निम्न है। ऐसे में सरकार को मध्यान भोजन बच्चों को स्कूली पोशाक साइकिल तथा छात्रवृत्ति दिलाने में प्रमुखता देने के बजाय उन्हें कैसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुदृढ़ किया जा सके इस पर ध्यान देने की जरूरत है।